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लेखनी कहानी -22-Jun-2022 रात्रि चौपाल

भाग  5 : रिजॉर्ट मैनेजमेंट 


आजकल कलेक्टरों को प्रशिक्षण में यह बात भी सिखानी चाहिये कि "रिजॉर्ट मैनेजमेंट" कैसे किया जाये ? पता नहीं कब अचानक इसकी जरूरत पड़ जाये ? अब पारंपरिक प्रशासन का जमाना नहीं रहा । अब तो नित नई परिस्थितयां बनती बिगड़ती हैं । उनके अनुरूप ढालना पड़ता है खुद को । तब जाकर कुर्सी सही सलामत रह पाती है । पता नहीं कौन सी घटना कब किसकी "गिल्लियां" उड़ा दे ? 
आजकल राजनीति रिजॉर्ट से ही चलने लगी है । पता नहीं कब विधायकों , सांसदों , विधान परिषद सदस्यों , सभासदों की "बाड़ाबंदी" करनी पड़ जाये ? आजकल हर एक चीज बिकाऊ है । फिर वह सौदर्य हो या निष्ठा । बस, उचित कीमत मिले तो सब कुछ बिक जाता है । जिसका जैसा सौंदर्य उसकी उतनी ही कीमत । इसी प्रकार जिसकी जितनी अधिक निष्ठा, उसके दाम भी उतने ज्यादा । अब कोई सीमा बची ही नहीं । राजनीतिक दलों की कोई विचारधारा भी नहीं बची । बस, एक ही विचारधारा बची है । येन केन प्रकारेण सरकार बनाना । वह चाहे विचारधारा की बलि देकर ही क्यों न बने ? ऐसी स्थिति में सरकार की नाव तब हिचकोले खाने लगती है जब विधायकों की महत्वाकांक्षा हद से ज्यादा बढ जाती है । तब किसी रिजॉर्ट की जरूरत पड़ती है । सरकारी मशीनरी इस नैया को पार कराने में महती भूमिका निभाती है । 

राजनीति का तो एक ही उसूल है "साम दाम दंड भेद । जैसे भी हो सत्ता पर पकड़ बनी रहनी चाहिए । नैतिकता प्रवचनों में ही अच्छी लगती है । जब जोरों की भूख लगती है तब भूखा आदमी "स्वाद" नहीं देखता , खाना देखता है । वह यह भी नहीं देखता है कि भोजन की गुणवत्ता कैसी है ? तब वह केवल अपना पेट देखता है । जब पेट में दो चार रोटियां आ जाती हैं तब उसे गुणवत्ता याद आने लगती है । नैतिकता भी कुछ कुछ वैसी ही है । जब सत्ता हाथ में नहीं होती है तभी नैतिकता याद रहती है । सत्ता हाथ में आने पर नैतिकता लंगोट की तरह फेंक दी जाती है और वह लंगोटी भी कहीं धूल फांक रही होती है । 
अविनाश को एक बढिया से रिजॉर्ट की व्यवस्था करनी थी । उसने एस पी से कहा । एस पी ने अपने सारे थानेदारों को काम पर लगा दिया । अपराधियों का क्या है , उन्हें तो बाद में भी पकड़ा जा सकता है । अभी तो विधायकों को पकड़ने की ज्यादा जरूरत है । फरियादियों की फरियाद बाद में भी सुनी जा सकती है, पहले विधायकों की फरमाइश तो पता चले ? मगर ये जो अवसर आया है "निष्ठाओं को परखने का" इस अवसर से कलेक्टर,  एस पी सीधे मुख्यमंत्री जी की निगाहों में आ सकते हैं । और एक बार अगर नजर ए इनायत हो जाये मुख्यमंत्री जी की तो फिर कहना ही क्या ? पूरी सर्विस उनकी छत्र छाया में निकल जायेगी । एक से बढकर एक "मलाईदार" पद मिलते रहेंगे । और इसके लिए करना भी क्या है ? मुख्यमंत्री जी को खुश ही तो रखना है ? उनके जायज , नाजायज काम ही तो करने हैं ? वैसे भी सरकार जो करती है वह सब जायज ही होता है नाजायज कुछ नहीं होता । विपक्ष में जब तक कोई बैठता है वह "ईमानदार , नैतिकतावादी , देशभक्त,  लोक हितैषी , लोकतान्त्रिक" नजर आता है । सत्ता में आते ही भ्रष्ट , अहंकारी, पद लोलुप , लोकतंत्र विरोधी , तानाशाह बन जाता है । यही सत्ता का सिद्धांत है । हमने ऐसे बहुत से "कट्टर ईमानदार" , बच्चों की कसम खाने वाले नेता भी देखे हैं । 

कलेक्टर और एस पी ने अपने अधीनस्थ समस्त अधिकारियों को काम पर लगा दिया । पंद्रह मिनट में रिपोर्ट आ गई कि तीन रिजॉर्ट्स हैं जिनमें से एक तो विपक्षी पार्टी के जिलाध्यक्ष का है । "बाड़ेबंदी" जैसी "ईवेन्ट" के लिए विपक्षी रिजॉर्ट सही नहीं रहेगा । इसलिए बाकी दोनों रिजॉर्ट्स को देखने का मन बना लिया दोनों ने । इनमें से एक रिजॉर्ट तो जिले के विधायक और सरकार में मंत्री जी का है और दूसरा सत्तारूढ दल के जिलाध्यक्ष का है । मंत्री जी का रिजॉर्ट थोड़ा बेहतर है मगर उसमें यह पेच है कि मंत्री जी मुख्यमंत्री खेमे के नहीं हैं , इसलिए बाद में समस्या उत्पन्न हो सकती है । ले देकर जिलाध्यक्ष महोदय का रिजॉर्ट ही इस कार्य हेतु उपयुक्त लगा । 

उधर मुख्यमंत्री जी का फोन जिलाध्यक्ष जी के पास आ गया था और उनसे सारी व्यवस्थाएं करने को कहा गया । मुख्यमंत्री जी का फोन आने के बाद जिलाध्यक्ष जी को इस आपदा में भी अवसर दिखने लग गया । उनकी वर्षों पुरानी तमन्नाएं अंगड़ाई लेकर जाग उठीं । कब से विधायक बनने का सपना देख रहे थे वे । पार्टी की दरी बिछाते बिछाते वे बुढा गये थे लेकिन पार्टी ने विधायकी का टिकट नहीं दिया उन्हें । टिकट मिला तो उन्हें जो "मुखिया" जी के जूते साफ करते थे , उनकी चंपी करते थे , उनका खाना बनाते थे , हजामत करते थे । और तो और उनके उल्टे सीधे काम करने वालों तक को टिकट दे दिया था और वे मंत्री भी बन गये थे । मगर जिलाध्यक्ष जी "उसूलों" के पक्के आदमी थे इसलिए पार्टी के झंडे बैनर लगाते ही रह गये । वो तो जब पार्टी के दोनों तीनों गुटों में जिलाध्यक्ष को लेकर खींचतान होने लगी तो जिलाध्यक्ष जी को निष्पक्ष नेता होने के नाते यह "ईनाम" दे दिया गया । मगर उन्हें मालूम था कि आजकल "संगठन" की नहीं चलती है "सत्ता" की ही चलती है और सत्ता के लिए "भक्तिभाव" प्रदर्शित करना अनिवार्य शर्त है । अब ये सुअवसर घर बैठे बिठाए ही आ गया है तो क्यों न इसे सीढी बनाया जाये सत्ता के लिए ? इसी उम्मीद में उनका चेहरा दूल्हे की भांति खिल उठा ।

जिलाध्यक्ष जी कलेक्टर साहब के ऑफिस में आ गये थे । वहां पर जिले का पूरा अमला पहले से ही मौजूद था । रात में भी कलेक्ट्रेट चांदनी से भी तेज रोशनी में जगमगा रहा था । सत्ता प्रतिष्ठान रात में भी एसे ही जगमगाते रहते हैं । 

सभी अधिकारी कलेक्टर की ओर मुंह ताके हुए बैठे थे । कोई भी अधिकारी अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करना चाहता था क्योंकि मामला बहुत संवेदनशील था । आजकल तो थानेदार हर एफ आई आर भी एस पी से पूछकर ही दर्ज करता है । "संवेदनशीलता" बहुत बढ गई है आजकल   किसी का एक "ट्वीट" कितना भारी पड़ जाये , कुछ पता नहीं है । फिर किस ट्वीट पर,कार्यवाई करनी है और किसे इग्नोर करना है , यह तो "ऊपर" से ही बताया जाता है । क्या पता ट्वीट करने वाला व्यक्ति पार्टी का कोई "गुलाम" हो और उसे ऐसा करने के निर्देश "ऊपर" से ही मिले हों ? यदि गलती से एफ आई आर दर्ज कर दी तो फिर मामला कोर्ट में चला जाता है और कोर्ट तो आजकल क्या क्या नहीं कर रही हैं ? कैसी कैसी टिप्पणियां कर रही हैं , सब जानते हैं । कोर्ट खुद ही प्रसंज्ञान ले लेती हैं , खुद ही पैरवी करती हैं और खुद ही फैसला कर,देती हैं । ऐसी स्थिति में "रिस्क" लेना बड़ा "रिस्की" काम है । क्या पता कब "थानेदारी" चली जाये ? और अगर एक बार थानेदार चली जाये तो "चौथ वसूली" भी बंद हो जाती है । चौथ वसूली बंद होते ही "अकाल" पड़ जाता है । कौन आदमी "अकाल मौत" मरना चाहता है ? इसलिए भलाई इसी में है कि "हाकिम" की आंख से देखो , उसके ही कान से सुनो और वही कहो जो "हाकिम" को पसंद आये । 

सारे अधिकारी कलेक्टर साहब के आदेश की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे । कलेक्टर साहब जिलाध्यक्ष जी की ओर मुखातिब हुए और कहने लगे 
"अध्यक्ष जी, मुख्य काम आपका ही है । रिजॉर्ट की ऐसी व्यवस्था कर दो जिससे कि ऐसा लगे जैसे वे किसी "जन्नत" में आ गये हैं । "खाने पीने" का भरपूर प्रबंध होना चाहिए । ड्राई फ्रूट्स इतने खिला दो कि वे खाते खाते "अघ" जायें । "रंग बिरंगे पानी" का "सागर" बना दो । विधायक महोदय उस रंग बिरंगे पानी को पीने के बजाय उसमें नहा लें , ऐसी व्यवस्था कर दो । इस काम में जिला आबकारी अधिकारी आपके अंडर में काम करेंगे । "वेज, नॉन वेज" दोनों तरह का भोजन होना चाहिए । उसकी इतनी वैराइटीज होनी चाहिए के सभी एम एल ए साहेबान ये कह दें कि इनको तो कभी देखा ही नही, बल्कि नाम भी नहीं सुना ।  अपने "शैफ" को इंस्ट्रक्शन दे दो । उसकी मदद के लिए कुछ एक्सट्रा स्टॉफ भी लगा दो । चाय, कॉफी, ठंडे का एक काउंटर स्थाई रूप से लगा दो । और हां , उनके मनोरंजन के लिए कुछ "बढिया" सा इंतजाम भी हो जाए । एडीएम साहब , आप ये सारी व्यवस्थाएं अपनी देखरेख में करवाना । वहीं रहना और मुझे बताते रहना । 

पुलिस अधीक्षक को समझाते हुए कहने लगे "सुरक्षा इतनी चाक चौबंद हो कि ये विधायक लोग आ तो अपनी मर्जी से सकें मगर जायें हमारी मर्जी से । सबके मोबाइल सर्विलांस पर,लगा दो , विधायकों के भी और स्टॉफ के भी । खुफिया तंत्र को अपने काम पर लगा दो । और हां , सब विधायकों पर कड़ी नजर रहनी चाहिए । कहीं यहां पर भी ऐसा नहीं हो जाये जैसा महाराष्ट्र में हो गया था । 

सारी व्यवस्थाएं करके कलेक्टर ने मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव यानि बॉस को फोन करके जानकारी दे दी । बॉस के मुंह से बस एक ही शब्द निकला "गुड" । वे इतना ही बोलते थे । 

क्रमश : 

हरिशंकर गोयल "हरि" 
5 7 22 

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4 Comments

Rahman

17-Jul-2022 10:00 PM

OSM👌👌👌

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Seema Priyadarshini sahay

11-Jul-2022 04:37 PM

बहुत खूबसूरत

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shweta soni

09-Jul-2022 07:39 PM

Nice 👍

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